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[[Category:गज़ल]]
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समन्दरों ही के लहजे में बात करता है
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है<br>ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होतेसमन्दरों ही कोई तो है जो हवाओं के लहजे में बात करता पर कतरता है<br><br>
ख़ुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते<br>शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहींकोई किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है जो हवाओं के पर कतरता है<br><br>
शराफ़तों ज़मीं की यहाँ कोई अहमियत ही कैसी विक़ालत हो फिर नहीं<br>चलतीकिसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता जब आस्मान से कोई फ़ैसला उतरता है<br><br>
ज़मीं की कैसी विक़ालत हो फिर नहीं चलती<br>जब आस्मान से कोई फ़ैसला उतरता है<br><br> तुम आ गये हो तो फिर कुछ चाँदनी सी बातें हों<br>ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है<br><br/poem>
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