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आदमी / ओ पवित्र नदी / केशव

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जिसे वह
अंधड़ से गुज़रकर स्वीकारता है
 
दुनिया
 
हम-तुम
छोड़ आये हैं एक दुनिया
हमारे पास अब
अपने-अपने चाकू हैं
खुरचते हैं जिनसे
अपनी छोटी-सी दुनिया को
 
लपकते हैं
गरजते हैं
छान-छानकर
अपनी ज़िंदगी में पड़े कंकड़ों को
 
क्या इसीलिए छोड़ी थी वह दुनिया
क्या इतनी थोड़ी है
यह दुनिया
कि बार-बार लौटते हैं
उसी खिड़की के नीचे
जिसे साथ-साथ
बंद कर आये थे हम
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