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<Poem>
अमल धवल गिरि के शिखरों पर,<br>बादल को घिरते देखा है।<br>
छोटे-छोटे मोती जैसे<br>उसके शीतल तुहिन कणों को,<br>मानसरोवर के उन स्वर्णिम<br>कमलों पर गिरते देखा है,<br>बादल को घिरते देखा है।<br>
तुंग हिमालय के कंधों पर<br>छोटी बड़ी कई झीलें हैं,<br>उनके श्यामल नील सलिल में<br>समतल देशों ले आ-आकर<br>पावस की उमस से आकुल<br>तिक्त-मधुर विषतंतु खोजते<br>हंसों को तिरते देखा है।<br>
बादल को घिरते देखा है।
शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर<br>दुर्गम बर्फानी घाटी में<br>अलख नाभि से उठने वाले<br>निज के ही उन्मादक परिमल-<br>के पीछे धावित हो-होकर<br>तरल-तरुण कस्तूरी मृग को<br>अपने पर चिढ़ते देखा है,<br>
बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गय धनपति कुबेर वह<br>कहाँ गई उसकी वह अलका<br>नहीं ठिकाना कालिदास के<br>व्योम-प्रवाही गंगाजल का,<br>ढूँढ़ा बहुत किन्तु लगा क्या<br>मेघदूत का पता कहीं पर,<br>कौन बताए वह छायामय<br>बरस पड़ा होगा न यहीं पर,<br>जाने दो वह कवि-कल्पित था,<br>मैंने तो भीषण जाड़ों में<br>नभ-चुंबी कैलाश शीर्ष पर,<br>महामेघ को झंझानिल से<br>गरज-गरज भिड़ते देखा है,<br>बादल को घिरते देखा है।<br>
शत-शत निर्झर-निर्झरणी कल<br>मुखरित देवदारु कनन में,<br>शोणित धवल भोज पत्रों से<br>छाई हुई कुटी के भीतर,<br>रंग-बिरंगे और सुगंधित<br>फूलों की कुंतल को साजे,<br>इंद्रनील की माला डाले<br>शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,<br>कानों में कुवलय लटकाए,<br>शतदल लाल कमल वेणी में,<br>रजत-रचित मणि खचित कलामय<br>पान पात्र द्राक्षासव पूरित<br>रखे सामने अपने-अपने<br>लोहित चंदन की त्रिपटी पर,<br>नरम निदाग बाल कस्तूरी<br>मृगछालों पर पलथी मारे<br>मदिरारुण आखों वाले उन<br>उन्मद किन्नर-किन्नरियों की<br>मृदुल मनोरम अँगुलियों को<br>वंशी पर फिरते देखा है।<br>
बादल को घिरते देखा है।
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