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Kavita Kosh से
जीवन कभी सूना न हो
कुछ मैं कहूँ, कुछ तुम कहो।
अब ज़िन्दगी की धार में
कुछ मैं बहूँ, कुछ तुम बहो।बहो ।
जिसका हृदय सुन्दर नहीं
मेरे लिए पत्थर वही।वही ।
मुझको नई गति चाहिए
जैसे मिले वैसे सही।सही ।
मेरी प्रगति की साँस में
कुछ मैं रहूँ कुछ तुम रहो।रहो ।
मुझको बड़ा सा काम दो
चाहे न कुछ आराम दो
लेकिन जहाँ थककर गिरूँ
मुझको वहीं तुम थाम लो ।
गिरते हुए इन्सान को
कुछ मैं गहूँ कुछ तुम गहो।गहो ।
संसार मेरा मीत है
सौंदर्य मेरा गीत है
मैंने कभी समझा नहीं
क्या हार है क्या जीत है
दुख-सुख मुझे जो भी मिले
कुछ मैं सहूं सहूँ कुछ तुम सहो।सहो ।</poem>