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गाय / धर्मेन्द्र पारे

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गा-गा, लो-लो के साथ
जब जंगल जाती थी यह
इसकी बछिया के साथ मैं भी रम्भाता रँभाता था
उसकी आँखों का भय और उदासी
मेरी आँखों में उतर आता था
उन तीन दिनों में मैं भी
टुकुर-टुकुर कई बार
जाकर इसकी आँखें देकतादेखता
रहा था