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{{KKRachna
|रचनाकार=शार्दुला नोगजा
}}
<poem>
चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टिअपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !
कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?
कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्तिनहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?
सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !
</poem>
{{KKRachna
|रचनाकार=शार्दुला नोगजा
}}
<poem>
चित्र एक दिख गया नयन में, एक दिवस मुझको अनजाने
छोड़ दिया है तबसे मैंने दर्पण में खुद को निहारना
एक जीर्ण सी यष्टिअपरिचित, बाल पके भुट्टे के जैसे !
अंतरमन तराशती तब से, छोड़ दिया तन को निखारना !
कौन सत्य दिखला जाता है, और कौन है बनता रक्षक
कौन दर्प मेरा सीमित कर, बन जाता है पंथ-प्रदर्शक
कौन बाद जो है बसंत के ग्रीष्मऋतु सखि ले आता है
कौन चाक पे रखी उमरिया की माटी, घट कर जाता है ?
कौन मुझे जो फल देता है, और अधिक झुकना सिखलाता
कौन मेरा संशय दावानल प्रेम सुधा से सींचे जाता
कौन मुझे हँस कह देता है प्राप्तिनहीं कर प्रेम सखि री
और कौन मन के दर्पण में सत्-चित-आनंद भाव भरे री ?
सुन ओ निराकार तुम मेरे, गुरु बनो, बाँहें संभालो
डगर नयी, पग कोमल मेरे, तृष्णा की ये फांस निकालो !
कलुषित, तृण सम बहते मन को, करुणा से अपनी सहेज लो
बालक सा क्रंदन सिखलाओ, शब्द निरथर्क सारे ले लो !
</poem>