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कवि: [[माखनलाल चतुर्वेदी]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी]] |संग्रह= ~*~*~*~*~*~*~*~ }}<poem>
कैसी है पहिचान तुम्हारी
 
राह भूलने पर मिलते हो !
 
 
पथरा चलीं पुतलियाँ, मैंने
 
विविध धुनों में कितना गाया
 
दायें-बायें, ऊपर-नीचे
 
दूर-पास तुमको कब पाया
 
 
धन्य-कुसुम ! पाषाणों पर ही
 
तुम खिलते हो तो खिलते हो।
 
 
कैसी है पहिचान तुम्हारी
 
राह भूलने पर मिलते हो!!
 
 
किरणों प्रकट हुए, सूरज के
 
सौ रहस्य तुम खोल उठे से
 
किन्तु अँतड़ियों में गरीब की
 
कुम्हलाये स्वर बोल उठे से !
 
 
काँच-कलेजे में भी कस्र्णा-
 
के डोरे ही से खिलते हो।
 
कैसी है पहिचान तुम्हारी
 
राह भूलने पर मिलते हो।।
 
प्रणय और पुस्र्षार्थ तुम्हारा
 
मनमोहिनी धरा के बल हैं
 
दिवस-रात्रि, बीहड़-बस्ती सब
 
तेरी ही छाया के छल हैं।
 
 
प्राण, कौन से स्वप्न दिख गये
 
जो बलि के फूलों खिलते हो।
 
कैसी है पहिचान तुम्हारी
 
राह भूलने पर मिलते हो।।
</poem>
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