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कवि: [[माखनलाल चतुर्वेदी]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=माखनलाल चतुर्वेदी]] |संग्रह= ~*~*~*~*~*~*~*~ }}<poem>
सूझ ! सलोनी, शारद-छौनी,
 
यों न छका, धीरे-धीरे !
 
फिसल न जाऊँ, छू भर पाऊँ,
 
री, न थका, धीरे-धीरे !
 
 
कम्पित दीठों की कमल करों में ले ले,
 
पलकों का प्यारा रंग जरा चढ़ने दे,
 
मत चूम! नेत्र पर आ, मत जाय असाढ़,
 
री चपल चितेरी! हरियाली छवि काढ़ !
 
ठहर अरसिके, आ चल हँस के,
 
कसक मिटा, धीरे-धीरे !
 
 
झट मूँद, सुनहाली धूल, बचा नयनों से
 
मत भूल, डालियों के मीठे बयनों से,
 
कर प्रकट विश्व-निधि रथ इठलाता, लाता
 
यह कौन जगत के पलक खोलता आता?
 
तू भी यह ले, रवि के पहले,
 
शिखर चढ़ा, धीरे-धीरे।
 
 
क्यों बाँध तोड़ती उषा, मौन के प्रण के?
 
क्यों श्रम-सीकर बह चले, फूल के, तृण के?
 
किसके भय से तोरण तस्र्-वृन्द लगाते?
 
क्यों अरी अराजक कोकिल, स्वागत गाते?
 
तू मत देरी से, रण-भेरी से
 
शिखर गुँजा, धीरे-धीरे।
 
 
फट पड़ा ब्रह्य! क्या छिपें? चलो माया में,
 
पाषाणों पर पंखे झलती छाया में,
 
बूढ़े शिखरों के बाल-तृणों में छिप के,
 
झरनों की धुन पर गायें चुपके-चुपके
 
हाँ, उस छलिया की, साँवलिया की,
 
टेर लगे, धीरे-धीरे।
 
 
तस्र्-लता सींखचे, शिला-खंड दीवार,
 
गहरी सरिता है बन्द यहाँ का द्वार,
 
बोले मयूर, जंजीर उठी झनकार,
 
चीते की बोली, पहरे का `हुशियार'!
 
मैं आज कहाँ हूँ, जान रहा हूँ,
 
बैठ यहाँ, धीरे-धीरे।
 
 
आपत का शासन, अमियों? अध-भूखे,
 
चक्कर खाता हूँ सूझ और मैं सूखे,
 
निर्द्वन्द्व, शिला पर भले रहूँ आनन्दी,
 
हो गया क़िन्तु सम्राट शैल का बन्दी।
 
तू तस्र्-पुंजों, उलझी कुंजों से
 
राह बता, धीरे-धीरे।
 
 
रह-रह डरता हूँ, मैं नौका पर चढ़ते,
 
डगमग मुक्ति की धारा में, यों बढ़ते,
 
यह कहाँ ले चली कौन निम्नगा धन्या !
 
वृन्दावन-वासिनी है क्या यह रवि-कन्या?
 
यों मत भटकाये, होड़ लगाये,
 
बहने दे, धीरे-धीरे
 
और कंस के बन्दी से कुछ
 
कहने दे, धीरे-धीरे !
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