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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
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तुमने रंग कहा
मैंने राग
बहुत अलग थी तुम्हारी भाषा
मैं सोचने लगा
उन तमाम सपनों के बारे में
चुपचाप जिनकी पदचाप
मेरी नींद में दाखिल होती थी
हर रात !

तुम्हारी आंखें बंद थीं

धूप की एक पतली लकीर
चुपचाप उतर रही थी
तुम्हारी पलकों से

शाम की दहलीज पर
एक सूखा पत्ता रखा था

बरसों पुरानी कोई धुन गल रही थी हवा में

तुम बहुत ख़ुश थीं
मैं बहुत उदास
बस,
इतनी सी कहानी थी
हमारे प्रेम की ।
</poem>
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