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रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 5

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|रचनाकार= रामधारी सिंह "दिनकर"}}{{KKPageNavigation|पीछे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 4|आगे=रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग 6|संग्रहसारणी= रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
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'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
 
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
 
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
 
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।
 
 
'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।
 
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।'
 
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
 
गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।
 
 
कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,
 
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
 
दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त,
 मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्‌भ्रान्तउद्भ्रान्त?  
'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!
 
अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।'
 
कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!
 
वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।
 
 
'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
 
पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।
 
उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम?
 
कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।'
 
 
घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,
 
होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।
 
चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
 
जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।
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