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ओ छली दुष्यंत / ऋषभ देव शर्मा

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|संग्रह=ताकि सनद रहे / ऋषभ देव शर्मा
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ओ छली दुष्यंत
 
 
 
ओ छली दुष्यंत
तुमको तापसी का शाप!
 
आज आए हो
हम तुम्हारे।
फिर वरण कर लें तुम्हारा?
 
याद आता है तुम्हारा रूप वह
बढ़ रहे थे देह को खाने
लोभ के पंजे पसारे।
 
हम बिसुध थे स्वप्न में खोए हुए
प्यार की पुचकार भर से
बँध गया मन का हिरण।
 
तुम चुरा कर स्वत्व सारा दे गए उत्ताप!
 
छल तपोवन को
भाग्यलेखों के नियंता बन गए,
धर्म के पर्याय बनकर पाप के प्रतिनिधि बने।
 
पाप ही था
बहिष्कृत कर दिया
अपने भवन, अपनी सभा से।
 
तभी से फिर रहे हम भोगते संताप!
 
अब मुखौटों पर मुखौटे धार कर
फिर चले आए - विश्वासघाती!
अब न हम स्वागत करेंगे।
 
तुम वधिक हो!
तुम्हारे नाम के आगे लिखी है
भविष्यत् के भ्रूण की हत्या।
 
तुम घृणित हो!
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