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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तेवरी / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>देवताओं को रिझाया जा रहा है
पर्व कुर्सी का मनाया जा रहा है
भोर फाँसी की गई आ पास शायद
क़ैदियों को जो सजाया जा रहा है
आदमी की बौनसाई पीढ़ियों को
रोज़ गमलों में उगाया जा रहा है
जाम रखकर तलहथी पर भूख की अब
जागरण को विष पिलाया जा रहा है
पारदर्शी तीर धर लो शिंजिनी पर
व्यूह रंगों का बनाया जा रहा है </poem>
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|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तेवरी / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>देवताओं को रिझाया जा रहा है
पर्व कुर्सी का मनाया जा रहा है
भोर फाँसी की गई आ पास शायद
क़ैदियों को जो सजाया जा रहा है
आदमी की बौनसाई पीढ़ियों को
रोज़ गमलों में उगाया जा रहा है
जाम रखकर तलहथी पर भूख की अब
जागरण को विष पिलाया जा रहा है
पारदर्शी तीर धर लो शिंजिनी पर
व्यूह रंगों का बनाया जा रहा है </poem>