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{{KKRachna
|रचनाकार=जिगर मुरादाबादी
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[[Category:ग़ज़ल]]
अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे
जुनूँ के स ख़्त सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ हसीं -हसीं नज़र आये जवाँ -जवाँ गुज़रे
मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे
ख़ता मु'आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न किख़ुद कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई
रह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिन को जिनको दो दिलों के सिवा
मु'आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
कभी -कभी तो इसी एक मुश्त-ए- ख़ाक के गिर्द
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे
बहुत अज़ीज़ है मुझ को मुझको उन्ही की याद "ज़िगर"
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे
</poem>