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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तरकश / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem> झुग्गियों को यों हटाया जा रहा है
शहर को सुंदर बनाया जा रहा है

बँट रही हैं पट्टियाँ मुँह बाँधने को
मुक्ति का उत्सव मनाया जा रहा है

हर क़लम की जीभ धरकर नींव में अब
सत्य का मंदिर चिनाया जा रहा है

भीड़ गूँगों की जमा है गोलघर में
पाठ भाषा का पढ़ाया जा रहा है

तीर को कुछ और पैना क्यों न कर लें !
नित नया चेहरा चढ़ाया जा रहा है

आख़िरी महफिल सजी है आज उनकी
>शब्द उँगली पर नचाया जा रहा है </Poem