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{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषभ देव शर्मा
|संग्रह=तरकश / ऋषभ देव शर्मा
}}
<Poem>सभी रंग बदरंग हैं कैसे खेलूँ रंग
बौराया तेरा शहर घुली कुएँ में भंग

पूजाघर के पात्र में राजनीति के रंग
या मज़हब के युद्ध हैं या कुर्सी की जंग

कंप्यूटर पर बैठकर उड़े जा रहे लोग
मेरे काँधे फावड़ा मुझे न लेते संग

होली है पर चौक में नहीं तमाशा एक
कब से गूँगी ढोलकें बजी न कब से चंग

इनके महलों में रचा झोंपड़ियों का खून
बुर्जी वाले चोर हें , चीखा एक मलंग

ऐसी होली खेलियो खींच मुखौटे , यार!
असली चेहरा न्याय का देख सभी हों दंग </Poem>