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Kavita Kosh से
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।<br>
मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे।।<br><br>
ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली।<br>
किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली।।<br><br>
तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता।<br>
उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता।।<br><br>
वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता।<br>
अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता।।<br><br>
बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता।<br>
माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता।।<br><br>
तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे।<br>
ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे।।<br><br>
तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता।<br>
और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता।।<br><br>
तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती।<br>
जब अपने मुन्ना राजा को गोदी में ही पातीं।।<br><br>
इसी तरह कुछ खेला करते हम-तुम धीरे-धीरे।<br>
यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे।।<br><br>