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Kavita Kosh से
: मैं सोच समझ कर कवि बेचता हूँ
: जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ।
ये लाल किले का हिरो हीरो कहलाताये दढ़ी दाढ़ी दिखला कर के बहलाताजी, हास्य व्यंग व्यंग्य की वो गौरव गरिमा
जी गाया करता जीजा की महिमा
जी, वह कुर्तक का रंग जमाता है
वो गला फाड़ कर काम चला लेता
ये पैर पटक कर धाक जमा लेता
जी, ये त्यागी है, वैरागी है वो,
जी, ये विद्रोही है, अनुरागी है वो
ये कवि युद्ध की गाता है लोरी
वो लोक धुनों की करता है चोरी
ये सेनापति कवियों की सेना का
वो किस्सा क़िस्सा गाता तौता-मैना का
ये अभी-अभी आया है लाइट में
वो कसर नहीं रखता है डाइट में
ये लिखना लिख लेता है कविता हथिनी परवो लिखना लिख लेता है अपनी पत्नी परजी, इसने बिल्ली , गधे नहीं छोड़े
जी, उसने कुत्ते बंधे नहीं छोड़े
: जी, सस्ते दामों इन्हें बेचता हूँ
वो अभी-अभी उतरा है चंदन से
इसने कविता पर पुरस्कार जीता
है शासन तक लम्बा इसका फीता फ़ीता जी, गम ग़म खाता वो आँसू पीता है
जी, ये फोकट की रम ही पीता है
इसके पोरखो पुरखों ने पी इतनी हाला
बिन पिए रची है इसने मधुशाला
जी, ये मन में कस्तूरी बोता है
जी, वो कवियों के बिस्तर ढ़ोता है
ये देश-प्रेम मे में बहता रहता है
वो रात-रात भारत दहता रहता है
ये मन्दिर कैसे जैसे गाँव किनारे का
वो तैरा करता सागर पारे का
जी, ये सूरज को कै करवाता है
इसकी कमीज़ पर धूप बटन टाँके
जी, उसका गधा बैलो को हाँके
जी, क्यूँ क्यों हुज़ूर आप कुछ नहीं बोले
जी, क्यूँ हुज़ूर, हैं आप बड़े भोले
जी, इसमें क्या है नाराज़ी की बात
मेरी दुकान में कवियों की बारात
जी, नहीं जंचे ये, कहें तो नए दे दूँ
जी, नहीं चाहिए नएनये, हए गए दे दूँ।
: जी सभी तरह के कवि बेचता हूँ
: जी हाँ, हुज़ूर, मैं कवि बेचता हूँ।
जी, ये रूहें हिन्दी के बेटों की
जी, बेचारे किस्मत क़िस्मत के होठों हेठों की
जी, इनसे जीवन छन्दो में बांधा
जी हाँ, गीतो को होठों पर साधा
जी, बेच दिया इसने अपना घर-बार
जी, वो मनु को श्रद्धा से मिला गया
जी, ये मित्रो मित्रों को अद्धा पिला गयाजी, वो पीकर जो सोया , उठा नहीं
जी, इसे पेट भर दाना जुटा नहीं
जी, समझ गया! हाँ कवियत्री कवयित्रियाँ भी हैं
जी, कुछ युवती, कुछ अब तक बच्ची हैं
ये बिन बन मीरा मोहन को ढूंढ रहीवो सूर्पणखा लक्ष्मण को मूढ मूड़ रही
ये बाँट रही जग को कोरे सपने
वो बेच रही जग को अनुभव अपने
जी, कुछ कवियों से इनका झगड़ा है
जी, उनका पौव्वा ज्यादा तगड़ा है
जी, ये चलती है पेशंट पति को साथ लिए
जी, वो चलती है पूरी बारात लिए
जी, नहीं-नहीं हँसने की क्या है बात
जी, ग्राहक मर्ज़ी से चुनते जाते
जी, बहुत इकट्ठे हुए हटाता हूँ
जी अंतिम कवि देखो देखें दिखलाता हूँ
जी ये कवि है सारे कवियों का बाप
जी, कवि बेचना, वैसे बिल्कुल पाप।
: क्या करूँ, हाल कर कवि बेचता हूँ
: जी हाँ, हुज़ूर, मै कवि बेचता हूँ।