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12:59, 9 मई 2009
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एक कागज़छत पर झुक आयी तुम्हारी डालियों के बीचदेखता कितने स्वप्नकितनी कोमल कल्पनाएँतुम्हारे दस्तख़त वातायनों से मुझ पर आकृष्ट हुआ करतीं,कितनी बार हुई थी वृष्टिऔर मैं तुम्हारे पास खड़ा भींगता रहाकितनी बार क्रुद्ध हुआ सूर्यऔर मैं खड़ा रीझता रहा तुम्हारी छाया मेंकितनी बार पतझर कादंश झेलकर भीमैंने चुरा लिया था ,तुम हरित हुए नवीन जीवन चेतना का संदेश देनेऔर खिलखिला उठेमेरे साथ अपने किसलय मेंऔर न जाने कितनी बार आया सावनजब अपनी ही डालों के झूले मेंमेरे साथ झूलने लगे थे तुम -पर अब तुम कहाँ हो मेरे वृक्ष ?
मैंने देखा किऔर आज जब तुम नहीं होउस दस्तख़त मेंतो वृष्टि भी यत्किंचित हैतुम्हारा पूरा अक्स सूर्यातप भी मारक नहीं रहाअब पतझड़ के पास भी नहीं रहा कोई योग्य पात्रऔर जानते हो तुम ?सावन भी अब सड़कों पर लडखडाया चला करता है ।
दस्तख़त का वह कागज़छिन्न भिन्न हो गए हैं स्वप्नमेरे सारे जीवन की लेखनी काविलीन हो गयी हैं कल्पनाएँपरिणाम बन क्योंकि हृदय हो गया ।है वस्तु मैंने देखा किअक्षरों के मोड़ों मेंजिंदगी के मोड़ मिले , कुछ सीधी सपाट लकीरें थींकहने के लिए किसब कुछ ऐसा ही सपाट, सीधा और वस्तु उपयोगितावादी व वैकल्पिक होती हैतुम्हारे बिना । मुझे एक ख़त लिखनागर हो सके,क्योंकि वह तो ख़त नहीं,दस्तख़त था ।
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