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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार: [[=तेजेन्द्र शर्मा]]}}[[Category:कविताएँ]][[Category:तेजेन्द्र शर्मा]]<poem>अपने चारों ओरनिगाह दौड़ाता हूँ,तो डरे, सहमे, बेजानचेहरे पाता हूं
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~डूबे हैं गहरी सोच मेंभयभीत मां, परेशान पिताअपने ही बच्चों में देखते हैंअपने ही संस्कारों की चिता
अपने चारों ओर<br>जब भाषा को दे दी विदाईनिगाह दौड़ाता हूँ,<br>कहां से पायें संस्कारतो डरे, सहमे, बेजान<br>अंग्रेज़ी भला कैसे ढोएचेहरे पाता हूं<br><br>भारतीय संस्कृति का भार!
डूबे हैं गहरी सोच में<br>समस्या खडी है मुँह बायेभयभीत मां, परेशान पिता<br>यहां रहें या वापिस गांव चले जायें?अपने ही बच्चों में देखते हैं<br>तन यहां है, मन वहाँअपने ही संस्कारों की चिता<br><br>त्रिशंकु! अभिशप्त आत्माएँ!
संस्कारों के बीज बोने कासमय था जब भाषा को दे दी विदाई<br>,कहां से पायें संस्कार<br>लक्ष्मी उपार्जन के कार्यों मेंअंग्रेज़ी भला कैसे ढोए<br>भारतीय संस्कृति का भारव्यस्त रहे तब!<br><br>
समस्या खडी कहावत पुरानी है मुँह बाये<br>यहां रहें या वापिस गांव चले जायें?<br>बबूल और आम कीतन यहां है, मन वहाँ<br>लक्ष्मी और सरस्वती कीत्रिशंकु! अभिशप्त आत्माएँ!<br><br>सुबह और शाम की
संस्कारों के बीज बोने का<br>समय था जब,<br>लक्ष्मी उपार्जन के कार्यों में<br>व्यस्त रहे तब!<br><br> कहावत पुरानी है<br>बबूल और आम की<br>लक्ष्मी और सरस्वती की<br>सुबह और शाम की<br><br> सुविधाओं और संस्कृति की लडाई<br>सदियों से है चली आई<br>यदि पार पाना हो इसके, तो<br>बुध्दम् शरणम् गच्छामि!<br><br/poem>
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