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कई बार इसकी खातिर ज़र्रे-ज़र्रे का जिगर चीरा
मगर ये चश्मेचश्म-ए-हैरां , जिसकी हैरानी नहीं जाती
नहीं जाती मताए-लालोलाला-ओ-गौहर की गरांयाबीमताए-ग़ैरतोग़ैरत-ओ-ईमां की अरज़ानी नहीं जाती
मेरी चश्मेचश्म-ए-तन आसां को बसीरत मिल गयी जब से
बहुत जानी हुई सूरत भी पहचानी नहीं जाती
सरे-ख़ुसरव से नाज़ेनाज़-ए-कज़कुलाही छिन भी जाता हैकुलाहेकुलाह-ए-ख़ुसरवी से बू-ए-सुल्तानी नहीं जाती
ब-जुज़ दीवानगी वां और चारा ही कहो क्या है
जहां अक़्लोअक़्ल-ओ-खिरद की एक भी मानी नहीं जाती
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