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लालसा-मग्न रहे अविराम मान-मद में प्रमत्त हो प्राण
क्षुद्रता में बीता सब काल हुआ कुछ नहीं आत्म कल्याण । कल्याण।
व्याप्त हो रहा यहाँ चहुँओर चहुँ ओर सुशीतल सौरभ स्निग्ध महान
वायु पर इसमें एक विषाक्त मिली है पड़ती मुझको जान
शारदा भगिनी मय गुणधाम उसे मैं गई मोह में भूल
आज उपजाती उसकी याद हृदय में रह रह दारुण शूल । शूल।
सजा है शयन कक्ष अभिराम चतुर्दिक छाया नैश प्रभाव
एकदा लक्ष्मी के उर बीच उदय हो आए सात्विक भाव । भाव।
भवन से निकल चल पड़ी शीघ्र लक्ष्य कर विद्यारण्य पुनीत
निमिष में ही अनित्य पर आहा अहा नित्य ने पाई पूरी जीत ।
विहग थे गाते सुंदर गीत किया जब उसने वहाँ प्रवेश
शारता करती थी हो शांत उषा की का उपासनानत भाल
देख लक्ष्मी को सम्मुख खड़ी रह गयी स्तम्भित सी कुछ काल ।
दबाकर फिर विस्मय के भाव दौड़कर लिपट गई सस्नेह
रही आँखों से आँखे अट आँखें अटी हृदय से हृदय, देह से देह
रूँध गये दोनों ही के कंठ बन गई वाणी मूक अपार
प्रेम का वह था सहज स्वरूप न था उसमें कृत्रिमता-रो रोग
सत्य ही आत्मा से था अहा शुद्ध वह आत्मा का संयोग
भला रह सकते कब तक कहो परस्पर हम दोनों प्रतिकुल प्रतिकूल
नहीं है हममें कुछ भी भेद एक शाखा के हम दो फूल
पुण्य यह घटिका मंगल मूल आज की संध्या है या प्रात
खिल रहे, शांत सरोवर बीच कुमुदिनी-कमल एक ही साथ । साथ।
स्वर्ण किरणों में करता स्नान प्रफूल्लित प्रफुल्लित यह मेरा उद्यान
भूमि से मिलने को क्या आज स्वर्ग ही उतर पड़ा मुद-प्राण । प्राण।
(श्री शारदा, अक्टूबर 1920 में प्रकाशित)
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