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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-2
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<poem>

इस नगर से गुजरते हुए डर लग रहा है
इन पहचाने रास्तों पर
आहत पड़ा है हमारा प्यार

शोषण के इस विशाल तंत्र में
अपनी उम्र खत्म होने से पहले मेरे रिश्ते
दिल में खौफ पैदा करते हैं
अचानक कोई साया
ख़याल छू कर गुजर जाता है

याद हैं तुम्हें शाम के रंग ?
गुजरे वक्त की किताबों के हर्फ ?

तुम जो इस धरती पर
सबसे सुंदर घटना थीं मेरे लिये
तुम जो बेइंतहां ख़ूबसूरत स्मृति हो अब
मेरे अतीत का अर्थ
मेरे वजूद का हिस्सा
जो कहीं इस नगर के वीरानों में छूट गया है
कैसे दोष दूं तुम्हें
इल्जाम खुद को देना भी कहीं से वाजिब नहीं

एक कशिश है भीतर
गुजरे मौसमों के रंग
गयी हवाओं का स्पर्श
बीते खयाल रास्ता चलते
अचानक टोंक जाते हैं

इस शहर के ज्यादातर मोड़,
ज्यादातर रास्ते
ये तमाम पेड़ और मकानात
अप्णी अमरता घोषित कर रहे हैं
कहीं नहीं हैं हमारी मुहब्बत के निशान

डर लग रहा है गुजरते हुए
इस अजीमुश्शान, भव्य और महान नगर से ।
</poem>
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