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Kavita Kosh से
'आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय,
भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।
फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।'
और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।
किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा,
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