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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''प्रीत के वट-वृक्ष!'''


फूल बरसे थे नहीं
औ’ भीड़ ने मंगल न गाए
ढोलकों की थाप
मेहंदी या महावर
हार, गजरे, चूड़ियाँ
सिंदूर, कुमकुम
था कहीं कुछ भी नहीं,
::: कुछ छूटने का भय नहीं।

गगन ने मोती दिए थे
लहलहाती ओढ़नी दी थी धरा ने
और माटी ने महावर पाँव में भर-भर दिया था
सूर्य-किरणें अग्निसाक्षी हो गई थीं
नाद अनहद गूँजता
अंतःकरण में सर्वदा निःशेष।

दूब ने परिणय किया वट-वृक्ष से
बँध-बँध स्वयं ही,
आप वट ने बढ़, भुजाओं से उसे
लिपटा लिया था।
घिर हवा के ताप में, जल, दूब सूखी ;
प्रीत के वट-वृक्ष!
अब तुम क्या करोगे?

</poem>