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{{KKRachna
|रचनाकार=प्रतिभा सक्सेना
|संग्रह=सन्नाटे का छन्द / अज्ञेय
}}
<poem>
छिंगुनिया के छल्ला पे तोहि का नचइबे ,
नथुनियाँ, न झुलनी, न मुँदरी जुड़ी ,
आयो लै के कनैठी अंगुरिया को छल्ला !
इहै छोट छल्ला पे ढपली बजइबे !

कितै दिन नचइबे ,गबइबे ,खिजइबे
कसर सब निकार लेई ,फिन मोर लल्ला
कबहुँ गोरिया तोर पल्ला न छोड़ब ,
चिपक रहिबे बनिके तोरा पुछल्ला !

करइ ले अपुन मनमानी कुछू दिन
उहै छोट लल्ला तुही का नचइबे !

भये साँझ आवै दुहू हाथ खाली
जिलेबी के दोना न चाटन के पत्ता ,
मेला में सैकल से जावत इकल्ला ,
सनीमा के नामै दिखावे सिंगट्टा !
हमहूँ चली जाब देउर के संगै
उहै ऊँच चक्कर पे झूला झुलइबे !

काहे मुँहै तू लगावत सबन का
लगावत हैं चक्कर ऊ लरिका निठल्ला !
उहाँ गाँव माँ घूँघटा काढ रहितिउ ,
इहाँ तू दिखावत सबै मूड़ खुल्ला !
न केहू का हम ई घरै माँ घुसै देब ,
चपड़-चूँ करे तौन मइके पठइबे !

लरिकन को किरकट दुआरे मचत ,
मोर मुँगरी का रोजै बनावत है बल्ला ,
इहाँ देउरन की न कौनो कमी
मोय भौजी बुलावत ई सारा मोहल्ला
!
छप्पन छूरी इन छुकरियन में छुट्टा
तुहै छोड़, कहि देत, मइके न जइबे !

मचावत है काहे से बेबात हल्ला ,
अगिल बेर तोहका चुनरिया बनइबे ,
पड़ी जौन लौंडे-लपाड़न के चक्कर
दुहू गोड़ तोड़ब घरै माँ बिठइबे !
छिंगुनियाके छल्ला पे ...!



</poem>