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{{KKRachna
|रचनाकार=जोश मलीहाबादी
}} क़सम है आपके हर रोज़ रूठ जाने की<br>
के अब हवस है अजल को गले लगाने की<br><br>
फूँका हुआ है मेरे आशियाँ का हर तिनका <br>
फ़लक को ख़ू है तो हो है बिजलियाँ गिराने की<br><br>
हज़ार बार हुई गो मआलेगुल से दोचार <br>
बदल रही है तो बदले हवा ज़माने की<br><br>
हनोज़ शम्मा है रोशन शराबख़ाने की