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{{KKRachna
|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
}}
<poem>
'''पृथ्वी दिखलावे करती है'''


हीरे मोती जड़ी चादरें
सिर पर ओढे़
पृथ्वी दिखलावे करती है
परम सुखों के।
कोई आकर पूछे इससे
छाती में ज्वालामुखियाँ भर
किसे भुलावे देती हो तुम
जमे हुए औ’ सर्द
पर्वतों-से दुःख ढोकर
नदियाँ क्या यूँ ही
::::: बहती हैं?
मीठे रस के स्त्रोत तुम्हारे
खारे पानी
क्यूँ ढलते हैं?

फिर चाहे पैंजनी बजाती
रात-रात भर सज कर
घूमो
या सूरज का पहन बोरला
आँचल को अटकाए
नाचो
शाख-शाख से ताल बजाओ
माथे पर कुमकुम छितराओ
::::: सुबह-शाम तुम,
पर चुपके-चुपके रोती हो
::::: अंधेरे में,

इसीलिए तो हीरों वाले
आँचल के पल्लू से आँसू
गिर जाते हैं,
सुबह-सुबह ही
झट से जिन्हें
छिपाकर पोंछो
किंतु पता है.......
तुम तो दिखलावे करती हो
::::: परम सुखों के।
</poem>