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10:56, 22 जून 2009 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
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'''फुसफुसाहटें'''
जाने क्या है उनके पास
कि
आते हैं वे
प्रहार नहीं करते
आघात नहीं करते
फैला जाते हैं - धुआँ-धुआँ
धुँधली हो जाती है हमारी आँखें
हाथों को सूझता नहीं कुछ
साँस आती नहीं
घुटता है दम
चीखते-तड़पते हैं हम।
एक से दूसरे कान जाती
बुदबुदाहटों, फुसफुसाहटों में
क्या मारक-मंत्र उचारते होंगे वे
कि लकड़ियाँ
आप-से जल उठती हैं
जल उठती हैं चिताएँ
फैल जाता है धुआँ-धुआँ
::: और हम-बरबस, बेबस
::: रो उठते हैं कसमसाकर
::: अवश, लाचार-से।
</poem>