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|संग्रह= रश्मिरथी / रामधारी सिंह 'दिनकर'
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हो गया पूर्ण अज्ञात वास, <br>पाडंव लौटे वन से सहास,<br>पावक में कनक-सदृश तप कर,<br> वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,<br>
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,<br>
कुछ और नया उत्साह लिये।<br><br>
सच है, विपत्ति जब आती है, <br>कायर को ही दहलाती है,<br>शूरमा नहीं विचलित होते, <br>क्षण एक नहीं धीरज खोते,<br>
विघ्नों को गले लगाते हैं,<br>
काँटों में राह बनाते हैं।<br><br>
मुख से न कभी उफ कहते हैं, <br>संकट का चरण न गहते हैं,<br>जो आ पड़ता सब सहते हैं, <br>उद्योग-निरत नित रहते हैं,<br>
शूलों का मूल नसाने को,<br>
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।<br><br>
है कौन विघ्न ऐसा जग में, <br>टिक सके वीर नर के मग में?<br>खम ठोंक ठेलता है जब नर, <br>पर्वत के जाते पाँव उखड़।<br>
मानव जब जोर लगाता है,<br>
पत्थर पानी बन जाता है।<br><br>
ण बड़े एक से एक प्रखर, <br>हैं छिपे मानवों के भीतर,<br>मेंहदी में जैसे लाली हो, <br>वर्तिका-बीच उजियाली हो।<br>
बत्ती जो नहीं जलाता है<br>
रोशनी नहीं वह पाता है।<br><br>
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, <br>झरती रस की धारा अखण्ड,<br>मेंहदी जब सहती है प्रहार, <br>बनती ललनाओं का सिंगार।<br>
जब फूल पिरोये जाते हैं,<br>
हम उनको गले लगाते हैं।
 
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