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|रचनाकार=कविता वाचक्नवी
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'''पीर पराई'''


ड्यौढ़ी...
कितने कदमों की भी रही होगी
पार की
और
लाँघ ली चौखट
विदाई की वेला।
:::उसी एक पल
:::उठा पैर
:::बाहर धरते ही
:::घर वह हुआ पराया।
लाँघ दहलीजें
पहुँची जिस घर,
वह तो बाबुला!
‘पराया घर’।
जैसे तुम्हारे लिए।
आत्मजा हूँ - तुम्हारी।
:::तुम न कहते थे
:::‘पराए घर’ जाना है
:::आज वहीं है
:::‘पराए घर’
:::आत्मजा तुम्हारी
:::‘बेटी-पराई’
:::‘पराया-धन’....।
</poem>