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Kavita Kosh से
और नपुंसक हुई हवाएं
चलती हैं, बदलाव नहीं लातीं।
अंधे गलियारों में फिरतीं
खूब गूंजती हैं,
किसी अपाहिज हुए देव को
वहीं पूजती हैं,
पगडंडी पर
राजमहल के मंत्र बावरे अब भी ये गातीं।
फ़र्क नहीं पड़ता है कोई
इनके आने से,
बाज़ नहीं आते राजा
झुनझुना बजाने से,
नाजुक कलियां
महलसरा में हैं कुचली जातीं।
जंगली और हवाओं का
रिश्ता भी टूट चुका,
झंडा पुरखों के देवालय का है
रात फुंका,
राख उसी की
बस्ती भर में अब ये बरसातीं।
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