भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
नया पृष्ठ: शिशिर न फिर गिरि वन में जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन मे...
शिशिर न फिर गिरि वन में

जितना माँगे पतझड़ दूँगी मैं इस निज नंदन में

कितना कंपन तुझे चाहिए ले मेरे इस तन में

सखी कह रही पांडुरता का क्या अभाव आनन में

वीर जमा दे नयन नीर यदि तू मानस भाजन में

तो मोती-सा मैं अकिंचना रक्खूँ उसको मन में

हँसी गई रो भी न सकूँ मैं अपने इस जीवन में

तो उत्कंठा है देखूँ फिर क्या हो भाव भुवन में।
4
edits