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'''( अप्रैल २००७ में मुझ पर एक आफ़त आई और मैंने बदहवासी की हालत में ख़ुद को एम० आर० आई० मशीन में पाया। उस जलती - बुझती सुरंग में मेरे अचेतन जैसे मन में कई ख़याल आते रहे। उन्हें मैंने थोड़ा ठीक होने पर इस कविता में दर्ज़ किया और ये कविता हंस, जनवरी २००८ में प्रकाशित हुई। किया। पता नहीं इसे पारम्परिक रूप में कविता कहा भी जाएगा या नहीं ? )'''
वहाँ कोई नहीं है