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Kavita Kosh से
तूने करम किया तो ब-उनवाने रंजेज़ीस्त।
ग़म भी मुझे दिया तो ग़मे-जाविदाँ न था॥
आ गई है तेरे बीमार के मुँह पर रौनक़।
जान क्या जिस्म से निकली, कोई अरमाँ निकला॥
रस्मेख़ुद्दारी से गो वाक़िफ़ न थी दुनिया-ए-इश्क़।
फिर भी अपना ज़ख़्मेदिल शरमिन्द-ए-मरहम न था॥
मज़ाक़े-तल्ख़पसन्दी न पूछ, उस दिल का--
बगै़र मर्ग जिसे ज़ीस्त का मज़ा न मिला॥
मेरी हयात है महरूमे-मुद्दआ़-ए-हयात।
वो रहगुज़र हूँ जिसे कोई नक़्शेपा न मिला॥