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पत्थरों की अँगड़ाई
पत्थरों के पंजों में
और इन सलाख़ों में
सूलियों के साये में
इन्क़िलाब पलता है
तीरगी<ref>अँधेरे</ref>१० के काँटों पर
आफ़ताब चलता है
पत्थरों के सीने से
रात के अँधेरे में
जैसे शम्अ़ जलती है
उँगलियाँ फिरोज़ाँ फिरोज़ाँ हैं
बारिकों के कोनों से
साजिशें निकलती हैं
हड्डियाँ शिकस्ता हैं
नौजवान जिस्मों पर
जगमगाते माथों पर
ख़ून की लकीरें हैं