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होता अहो! फिर व्यर्थ ही क्यों यह महा-संग्राम है!<br>
क्या यह हमारी हानि भारी, राज्य से मिट जाएगी?<br>
त्रैलोक्य की भी सम्पदा उस रत्ना रत्न को क्या पाएगी?<br><br> 
मेरे लिए ही भेद करके व्यूह द्रोणाचार्य का;<br>
मारे सहस्रों शूर उसने ध्यान धर प्रिय कार्य का;<br>
पर अंत में अन्याय से निरुपाय होकर के वहाँ -<br>
हा हन्त! वो हत हो गया, पाऊँ उसे मैं अब कहाँ?<br>
उद्योग हम सबने बहुत उसको बचाने का किया,<br>
पर खल जयद्रथ ने हमें भीतर नहीं जाने दिया|<br>
रहते हुए भी सो हमारे, युद्ध में वह हत हुआ,<br>
अब क्या रहा सर्वस्व ही हा! हा! हमारा गत हुआ,<br>
पापी जयद्रथ पार उससे जब न रण में पा सका|<br>
उस वीर के जीते हुए सम्मुख न जब वह जा सका|<br>
तब मृतक उसको देख सर पर पैर रक्खा नीच ने,<br>
हा! हा! न यों मनुजत्व को भी स्मरण रक्खा नीच ने||<br>
श्रीकृष्ण से जब ज्येष्ठ पाण्डव थे वचन यों कह रहे,<br>
अर्जुन हृदय पर हाथ रक्खे थे महा-दुःख सह रहे|<br>
'हा पुत्र!' कहकर शीघ्र ही फिर वे मही पर गिर पड़े;<br>
क्या वज्र गिरने पर बड़े भी वृक्ष रह सकते खड़े?<br>
जो शस्त्र शत-शत शत्रुओं के सहन करते थे कड़े,<br>
वे पार्थ ही इस शोक के आघात से जब गिर पड़े;<br>
तब और साधारण जनों के दुःख की है क्या कथा?<br>
होती अतीव अपार है सुत-शोक की दु:सह व्यथा||<br>
यों देख भक्तों को प्रपीड़ित शोक के अति भार से,<br>
कुछ द्रवित अच्युत भी हुए कारुण्य के संचार से!<br>
तल-मध्य-अनल-स्फोट से भूकंप होता है जहाँ,<br>
होते विकंपित से नहीं क्या अचल भूधर भी वहाँ?<br>
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