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सारे आलम में किया तुझ को तलाश।

तू ही बतला है रगेगरदन कहाँ ?

खूब था सहरा, पर ऐ ज़ौके़-जुनूँ।

फाड़ने को नित नये दामन कहाँ ?



वो लज़्ज़ते-सितम का जो ख़ूगर समझ गये।

अब ज़ुल्म मुझपै है कि सितम गाह-गाह का॥

शीशे में मौजे-मय को यह क्या देखते हैं आप।

इसमें जवाब है उसी बर्के़- निगाह का॥



मेरी वहशत पै बहस-आराइयाँ अच्छी नहीं नासेह!

बहुत-से बाँध रक्खे हैं गरेबाँ मैंने दामन में॥

इलाही कौन समझे मेरी आशुफ़्ता मिज़ाजी को।

क़फ़स में चैन आता है, न राहत है नशेमन में॥