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कुछ शे’र / रज़्म रदौलवी

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हम बेखु़दी-ओ-होश की हद से गुज़र के भी।
अन्दाज़ये-जमाले-हक़ीक़त न कर सके॥


तकमीले-इश्क़ क़ैद में मजबूरियों की थी।
कैसी हँसी कि रोने की जुरअत न कर सके॥


मेरी मजबूरियों का नाम रख लो दूसरी दुनिया।
यह कोई फ़ासला है जो क़फ़स से आशियाँ तक है॥


बेइश्क़ दर्दे-ज़ीस्त का दरमाँ न हो सका।
इन्साँ बजाय ख़ुद कभी इन्साँ न हो सका॥


हुस्ने-नज़र से मैंने सँवारी जो कायनात।
वो कौन खार था कि गुलिस्ताँ न हो सका॥


हर एक दर्द की करवट पै उठ रहा है हिजाब।
हरेक साँस में पैग़ाम पा रहा है कोई॥


जुर्मे-उलफ़त का सहारा मिलते ही होश आ गया।
अलमे-असबाब में खोया हुआ अब दिल नहीं॥


चमन में आग लगा दी दिलों को फूँक दिया।
मचल के और यह अब्रे-बहार क्या करते॥


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