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{{KKRachna
|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
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खराब होती न यूँ ख़ाके-शमा-ओ-परवाना।
नहीं कुछ और तो इनसान ही बना करते॥

मिजाज़े-इश्क में होता अगर सलीक़ये-नाज़।
तो आज इसके क़दम पर भी सर झुका करते॥

यह क्या किया कि चले आये मुद्दआ बनकर।
हम आज हौसलये-तर्के-मुद्दआ करते॥

कोई ये शिकवा-सरायाने-ज़ौर<ref>अत्याचारों की शिकायत करनेवालों</ref> से पूछे।
वफ़ा भी हुस्न ही करता तो आप क्या करते?

ग़ज़ल ही कह ली सुनाने को हश्र में ‘सीमाब’।
पडे़-पडे़ यूँ ही तनहा लहद<ref>क़ब्र</ref> में क्या करते?


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