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|रचनाकार=सीमाब अकबराबादी
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}}
[[Category:गज़ल]]
<poem>
तू हुस्न की नज़र को समझता है बेपनाह।
अपनी निगाह को भी कभी आज़मा के देख॥
परदे तमाम उठा के न मायूसे-जलवा हो।
उठ और अपने दिल की भी चिलमन उठा के देख॥
</poem>
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तू हुस्न की नज़र को समझता है बेपनाह।
अपनी निगाह को भी कभी आज़मा के देख॥
परदे तमाम उठा के न मायूसे-जलवा हो।
उठ और अपने दिल की भी चिलमन उठा के देख॥
</poem>