भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
विदा करने निकली जब माता
पग से लिपट रो पड़ी बहुएं बहुएँ, 'न्याय यही कहलाता ? 'हमने बचपन साथ बितायेब्याह हुआ संग -संग पति पाये
सीता को ही दुःख दिखलाये
क्यों नित नए नये विधाता ? !
'कोमल चित थे जेठ हमारे
बंधु खड़े क्यों चुप्पी धारे!
छिपे कहाँ वे ऋषि मुनि सारे!
कोई तो समझाता !
कोमल चित थे जेठ हमारेबंधु खड़े क्यों चुप्पी धारेछिपे कहाँ वे ऋषि मुनि सारे कोई तो समझाता !  'तब वन में था बल स्वामी का
सिर पर था न अयश का टीका
अब तो छूट रहा भगिनी का
इस घर से ही नाता !' विदा करने निकली जब मातापग से लिपट रो पड़ी बहुएँ, 'न्याय यही कहलाता ?
<poem>
2,913
edits