भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आओ ! / शमशेर बहादुर सिंह

27 bytes added, 14:27, 21 अगस्त 2009
}}
1
क्यों यह धुकधुकी, डर, -दर्द की गर्दिश यकायक सॉंस तूफान में गोया।छिपी हुई हाय-हायमें सुकून
की तलाश।
बर्फ के गालों में खोया हुआया ठंडे पसीने में खामोश हैशबाब।
तैरती आती है बहार
पाल गिराए हुए
भीने गुलाब - पीले गुलाबके।
तैरती आती है बहार
खाब के दरिया में
हैं।
जाफरान
जो हवा में मिला हुआ
सांस में भी है।
मुंद गई पलकों में कोई सुबह
जिसे खून के आसार कहेंगे।- खो दिया है मैंने तुम्हें ।2
कौन उधर है ये जिधर घाट की दीवार ... है ?
वह जल में समाती हुयी चली गई है ;
लहरों की बूंदों में
करोडों किरणों
की जिंदगी
का नाटक सा : वहमैं तो नहीं हूं।
फिर क्योंी मुझे [ अंगों में सिमिट कर अपने ]
तुम भूल जाती हो
x x x
एक गीत मुझे याद है।हर रोम के नन्हे -से कली मुख पर कलसिहरन की कहानी में था ;हर जर्रे में चुम्ब न की चमक की पहचान।पी जाता हूं ऑंसू की कनी-सा वह पल।
ओ मेरी बहार !
तू मुझको समझती है बहुत-बहुत - तू जब
यूं ही मुझे बिसरा देती है।
खुश हूं कि अकेला हूं, कोई पास नहीं है-
बजुज एक सुराही के
जो मेरा पडोसी है मेरी छत पर
बजुज उसके ,जो तुम होतीं - मगर हो फिर भी
यहीं कहीं अजब तौर से।
तुम आओ, गर आना है
मेरे दीदों की वीरानी बसाओ
बादल की हँसी कहें,
जिसे कोयल की
तूफान-भरी सदियों की
चीखें,
कि जिसे हम-तुम कहें।[ वह गीत तुम्हें भी तो
याद होगा ?]