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प्रकृति ममतालु है!
दूधभरी वत्सलता से भीगी-
छाया का आंचल आँचल पसारती,
-ममता है!
स्निग्ध रश्मि-राखी के बंधन से बांधती,
-निर्मल सहोदरा है!
बांहों बाँहों की वल्लरि से तन-तरू को
रोम-रोम कसती-सी!
औरों की आंखों आँखों से बचा-बचा-दे जाती स्पर्शों के अनगूंथे फूलों की पंक्तियांपंक्तियाँ-
-प्रकृति प्रणयिनी है!
बूंद-बूंद रिसते इस जीवन को, बांध मृत्यु -अंजलि में
भय के वनांतर में उदासीन-
शांत देव-प्रतिमा है!
मेरे सम्मोहित विमुग्ध जलज-अंत्स अंतस्‌ पर खिंची हुई
प्रकृति एक विद्युत की लीक है!
ठहरों कुछ, पहले अपने को, उससे सुलझा लूंलूँतब कंकहूँ- प्रकृति रमणीक है... 
</poem>
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