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| रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
| संग्रह=शब्दों के संपुट में / ओमप्रकाश सारस्वत
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<poem>बस यही है न
कि मौसम खराब है
बाहर सर्द-सन्नाटा है
सारे वृक्ष प्रश्नाकूल हैं
लक्ष्यहीन योगियों-से

पर लोगों को इतना मत डराओ
कि बर्फ़ उनके ज़ेहन में उतर जायें
सारे संभावनाकुरों को
हतचेत करता स्

अथवा कोहरे के भय से ही
भुला बैठें वे
सूरज रखने का ख्याल

देखो,धरती ज्यों ही तोड़ लेती है
सूरज से संबंध
त्यों ही घेर लेता है
यमराज के चूल्हे एक धुंएँ का अंधकार
कई कुंभीपाक नरकोंने प्रसरणशील पाप
कई यमलोकों की अपशकुनी छायाएं

हवा,क्षयरोगी-सी घूमती है;
पस्त,मरणशील
(वह चाह कर भी रात को
सुबह की ताज़गी नहीं दे पाती)
पखेरू भय के पिंड बन कर
यमदूती की झोली में काटते हैं रात
क्योंकि डर
चीज़ों को शक्ल से बदशक्ल
और अक्ल से बोदा बना देता है

इसलिए लोगों को इतना मत डराओ
कि बर्फ़ उनके जेहन में उतर जाए
और ने कोहरे के भय से ही भुला बैठें
सूरज उगने का ख़्याल

बन्धु!
अगर सूरज का ख़्याल भूल गया
तो तुम
इस लोक के
ऐसे जड़ीभूत तत्व हो जाओगे
जो सहस्र परमाणू भट्टियों पर
तप कर भी कभी
किसी औज़ार की कोई शक्ल
नहीं कर सकते अख़्तियार
</poem>
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