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| रचनाकार=ओमप्रकाश सारस्वत
| संग्रह=शब्दों के संपुट में / ओमप्रकाश सारस्वत
}}
<poem>(उसके वहाँ प्रवेशते ही)
जिन्होंने स्वयं को
हँसों के रूप में विज्ञापित कर रखा था
जिन्होंने स्थापित कर रखा था कि

सच्चाई:
सिर्फ झूठ के सिवाय
और कुछ नहीं होती;

जो इलाके भर की धूर्तता को
टॉनिक की तरह पचा रहे थे

जो समझा रहे थे __
बड़ी चतुराई के साथ____कि

महारानी !
रंग गोरा हो जाने से ही
कोई सर्वशुद्ध नहीं हो जाता
कोई इसी लिए बुद्ध नहीं हो जाता कि
उसने भी अपने बीवी बच्चे छोड़ रखे हैं
और अब वह निःस्पृह हो गया है

या वह
धूनी की भस्म को
अपने माथे की कसम खा कर
औरों के माथे पर लगा रहा है
तिलके रूप में
दवाई के गुण गा-गा कर
पर वह
पिशुन बगुलों के चुगलीपाठ पर कम
और उस पर्यटन खग पर
ज़्यादा ध्यान देती हुई
उसे सहानुभूति का दान देती हुई
बड़ी उत्फुल्लता पूर्वक बोली कि

हे खगराय ! हे राजहंस !
ये जो हमारे यहाँ
बसंत के आगमन पर
लोग उत्सव मनाते हैं
क्या इसके गीत तुम्हारे यहाँ भी गाते हैं?

और ग्रीष्म
जो सारे जलाशयो का यक मुश्त जल पीकर
हाथी-सा हंकड़ता है
क्या उससे किसी का कुछ नहीं बिगड़ता है?

और इन कामचारी
व्योम बिहारी मेघों की तरह
सारी बरसात
जो दूसरों के लिए गुप्तचरी करते हैं
आपके वहाँ वे किस मौत मरते हैं?

और शरत् में
क्षीणजला सरित-नायिकाओं की तरह
क्षीणविभवा,विवश कुलवधुएँ
अधिक जल-धन के लिए नहीं तरसती हैं?
क्या वे घाट बदलने को उद्यम नहीं करती हैं?

वह पर्यटक पँछी
उत्तरपटु था
वह कटु नहीं था
अतः सत्य को स्पृहणीय बना कर बोला:
मैडम!
हम युगचारी ऋत्विक हैं
हर मौसम की खबर रखते हैं
हम हर पत्ती पर नज़र
रखते हैं

सुनो,
बसंत में लोग
वहाँ भी उत्सव मनाते हैं
पर वे फूलों के ही गीत नहीं गाते हैं
वे पत्तों से भी प्यार करते हैं
वे जड़ों पर भी उसी तरह मरते हैं
जिस तरह 'आत्मा की गहराई' को
'आसमां की नींव' समझ कर
शरीर उस पर जान दे देता है

ग्रीष्म में वहाँ
पर्याप्त स्रोत होने कारण
पानी पर रोक नहीं है
यद्यपि किसी हाथी को
किसी दूसरे तालाब के
पानी का शौक नहीं है

और हमारे यहाँ
जो मेघ
दूसरों के लिए गुप्तचरी करते हैं
वे जीवनभर मरूस्थल की मोत मरते हैं

वहाँ शरत् में
क्षीणवसना भी कई सरित् बधुएँ
जलवधुओं की तरह
अपनी मर्यादा के पानी में रहती हैं
वे आई हुई आपत्ति को
जाने वाली विपदा की तरह सहती हैं

पर जो कामातुरा-सी
सैकतशय्याओं पर
अंगों पर शिथिल अद्योवस्त्र अंटाए
केवल जाँघों को ही
विश्व का कामनास्थल मानती हूई
हया को हवा के हाथों बेच
लज्जा-लज्जा पुकारती हैं

वे केवल भ्रम को ही विस्तारती हैं
(वे खूब जानती हैं शब्दों को ढाल बना कर
प्रयुक्त करना)

अतः रानी !
अगर ऋतुवधुओं के संग आपने
तालाब बचाना है
इन बगुले-हंसों से
तो खगों को रंगों से नहीं
जाति से पचानना सीखो

देखो,मछली जब भी मरती है
बगुलों को
हँस समझ के ही मरती है।
</poem>
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