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|रचनाकार=सरोज परमार
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[[Category:कविता]]
<poem>रूढ़ियों के जंगल में कैद
मेरा व्यक्तित्व
आज बिन मौत मरने को बैचैन हुआ
क्योंकि
आज हम अपने आज से बहुत शर्मिन्दा हैं।
रूह तो मर गई पर लाश अभी ज़िन्दा है।
हिप्पियों के तमाशों में दर्द की
परछाईयाँ ढूँढने वाले हम
खुद कितने बेदर्द हैं?
रोशनी का ढोल पीटने वाले आज हम
बैगैरती बिल्कुल अँधे हैं।
सवालों की कीचड़ में रेंगता
लिजलिजे केंचुए सा मन
आस्थाओं से जूझता
उड़ते वर्कों वाली
किताब सा तन
दुश्चिंताओं की जोकों सा त्रस्त
हर दिन
गिन गिन कर काट रहे हैं
सच ! हम अपने आज से बहुत शर्मिंदा हैं
भाषण के मैदानों में
राशन की दुकानों में
ऊढ़ी होती जवानियों को
विरासत में दे रहे हैं।
नारे
हड़तालें,
जलूस
हनन नैतिक मूल्यों का
और घिसटते हुए जीना।
समझा दिया है अर्थ अधिकारों का।
अपने वोट को
दस से कम में मत बेचो
और भविष्य को गिरवीं रख दो
भ्रष्टाचार के हाथों।
दिन दिन गलते हुए कुष्ट रोगी
मेरे वर्तमान !
तेरे लिए आज हम बहुत शर्मिंदा हैं\
</poem>
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