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बहरी भीड़ / केशव

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<poem>आओ, आओ
मैं तुम्हारे गीत
तुम्हें सुनाता हूँ
बात तुम्हारी
तुम्हारी ही भाषा में
फुसफुसाता हूँ तुम्हारे कान में
इकट्ठे होकर मेरे गिर्द
एक बहुत बड़े काने से
::::सुनते हो
तालियाँ बजाकर
::::गिनते हो
इस तरह निकलते हो
::::अपने बिल से
काले झंडे लेकर
और फिर उतने ही पत्थर
:::गिनकर
फैंकते हो मुझपर
अपनी चूहेदानियों से
या ईश्वर के कंधों पर बैठकर

मेरे लिए यह नहीं कोई नई बात
बार-बार अपना फन उठा
:::खुद को डसते हो
क्योंकि तुम अपने से अलग हो
खुद को खाली हाथों से भरते हुए
मैं गुज़रता रहता हूँ
सुरंगों से
चढ़ता रहता हूँ
::::पहाड़
पर तुम घर की छत पर ही
चाभी भरे कछुए की तरह
::::चलते रहते हो
अपनी ही आवाज़ को
न पहचानते हुए
</poem>
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