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{{KKRachna
|रचनाकार=बलबीर सिंह 'रंग'
}} [[Category:ग़ज़ल]]{{KKCatGhazal‎}}‎<poem>
ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आये ।
 
जवानी आ गई तनहाइयों तक तुम नहीं आये ।।
 
धरा पर थम गई आँधी, गगन में काँपती बिजली,
 
घटाएँ आ गईं अमराइयों तक तुम नहीं आये ।
 
नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समंदर को,
 
सतह भी आ गई गहराइयों तक तुम नहीं आये ।
 
किसी को देखते ही आपका आभास होता है,
 
निगाहें आ गईं परछाइयों तक तुम नहीं आये ।
 
समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का,
 
उदासी आ गई अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आये ।
 
न शम्म'अ है न परवाने हैं ये क्या 'रंग' है महफ़िल,
 
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आये ।
</poem>
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