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बहस के बीच / केशव

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<poem>जब कहने के लिए कुछ नहीं बचा
:::::उनके पास
तो वे सूखे स्वर में एक साथ बोले
'हम गिरा सकते हैं तुम्हें
क्योंकि तुम एक ऐसे घने वृक्ष हो
कुछ नहीं उग सकता
::::जिसके नीचे
सिवा सूखी घास के'
तब लगा मुझे
ये सब अब भाग रहे हैं
::::बौखलाये चूहों की तरह
टूटे काँच पर

बंदर,बिल्लियों के झगड़े में
भला क्या बोल सकता हूँ मैं
जबकि ये सब
::::उतर आये हैं
बुद्धि के बलात्कार पर
पर मेरे अंदर
एक चाकू
बहुत तेज़ी से चलने लगा
खून को चीरता हुआ
अब-जब मैने
बता दिया उन्हें
:::सच उनका
तो वे एक साथ सूरज को
:::देने लगे गालियाँ
उनका ख़्याल है
कि इस तरह मिलकर वे
छिपा सकते हैं सूरज को
::::हथेलियों की ओट में
मुझे फैंक सकते हैं
मुझसे अलग काटकर
अपने कुंठित
जंग लगे हथियारों से
क्योंकि वे
एक लम्बी रस्सी से
खूँटे पर बँधे हुये हैं
::::मेममे की तरह
</poem>
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