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देर बाद / सुदर्शन वशिष्ठ

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<poem>देर बाद जाना
जिन्हें बढ़िया समझता था
बहुत घटिया थे।

करते बस अपनी बात
दूसरों की प्रशंसा ग़ँवारा न था
जिसके समाने बैठे हो तुम
है वह दुनिया का सबसे जुझारू
औए उम्दा आदमी
वे कहते।

वे करते तारीफ सामने
उठते ही निन्दा प्रस्ताव रखते।ल

करते बात समाजवाद की
गले में लटकाए मार्कस को
उधर राष्ट्रध्रर्म में छपते
करते विरोध सरकार का
उधर पदवी को तरसते
पहनते नेकर पैंट की नीचे
उधर कमल को मसलते
बात करते नारी मुक्ति की
उधर पत्नि पर बरसते।
ऐसे लोग जो कहते कुछ
करते कुछ

करते कुछ तो कहते कुछ।
जान लेना चाहिए था ऐसे लोगों को
बहुत पहलें


मगर रहते हैं ये
छिपे रोग की तरह
जिस का लगता पता बहुत बाद में
कई परीक्षणों के बाद।
</poem>
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